कल जो शाम ढले
रुके दो कदम
जिंदगी के अस्मा में दिखे
सितारों से बिखरे हम ...
कभी चाहा था -
बढ़ा कर हाथ छू लू फलक
आज भी है बादलों में
मेरे बच्पन की वो झलक ...
फिर न जाने कहाँ
हकीकत से टकरा गए
मुलाकात ज़रा लंबी हुई
आरजू रोते रोते सो गए ...
अब अमावस की रात में
चाँद सी एक आशा
शोर है गुम अरमानों के
खामोशी है ज्यादा इशारा ज़रा सा ...
जिस्म के पिंजरे में
रूह मचल रही परवाज़ को
थक चुके है जाने दो
अब पिछेसे न कोई आवाज दो ...
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