ऐ दिल न जाने क्यों तू चटख़ता भी बहुत है
क्या शीशे सा टूटना तुझे भाता भी बहुत है
दामन भी ज़रा बचा के चलना सीख
के तू दामन अश्क में भिगोता भी बहुत है
हर कोई नहीं होता कबिल दिल लगाने के
फिर तू हर किसी से दिल लगाता भी बहुत है
कल तक उनके लिए सारा खेल ही था नजरों का
शायद तभी आज वो नज़र चुराता भी बहुत है
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