Saturday, April 4, 2020

87# part A ...

अपने साथ ले जाता है 
कितनी उम्मीदें 
सूरज क्या जाने
आँसुओ में डूबे है
चाँद से पूछो
कितने सिरहाने

ये दिन का उजाला 
क्या समझेगा 
पसीने की मजबुरी
रात के पूछो
कितने भूखे पेट सोए
कितने में बिकी जवानी

आत्माएं गिरवी है 
शवों के बाज़ार में
इंसानियत शर्मिंदा है
ये कैसा युग है
एक दूजे का लहू पीके ही
इंसान जिंदा है

दिल को चीरती
रूह को भेदती
चारी ओर एक शोर है
दर्द के चौखट पे
आज शब्द मोन 
और जुबान खामोश हैं




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