जब जब सावन के बूंदों से छूते हो
तुम हमारे दिल की तपती ज़मी को
कही भाँप बन उर जाता हैं हमारा मन परिंदा
क्यों तरसते है हम तुमको
जबकी जानते है, सब मरीचिका हैं
तुम में ही मिलके
तुमपे ही ख़ाक हो जाते है
हर सुबह चूम सूरज का माथा
फिर शाम से डल जाते है ...
तुम हमारे दिल की तपती ज़मी को
कही भाँप बन उर जाता हैं हमारा मन परिंदा
क्यों तरसते है हम तुमको
जबकी जानते है, सब मरीचिका हैं
तुम में ही मिलके
तुमपे ही ख़ाक हो जाते है
हर सुबह चूम सूरज का माथा
फिर शाम से डल जाते है ...